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अधे॑नुं दस्रा स्त॒र्यं१॒॑ विष॑क्ता॒मपि॑न्वतं श॒यवे॑ अश्विना॒ गाम्। यु॒वं शची॑भिर्विम॒दाय॑ जा॒यां न्यू॑हथुः पुरुमि॒त्रस्य॒ योषा॑म् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

adhenuṁ dasrā staryaṁ viṣaktām apinvataṁ śayave aśvinā gām | yuvaṁ śacībhir vimadāya jāyāṁ ny ūhathuḥ purumitrasya yoṣām ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अधे॑नुम्। द॒स्रा। स्त॒र्य॑म्। विऽस॑क्ताम्। अपि॑न्वतम्। श॒यवे॑। अ॒श्वि॒ना॒। गाम्। यु॒वम्। शची॑भिः। वि॒ऽम॒दाय॑। जा॒याम्। नि। ऊ॒ह॒थुः॒। पु॒रु॒ऽमि॒त्रस्य॑। योषा॑म् ॥ १.११७.२०

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:117» मन्त्र:20 | अष्टक:1» अध्याय:8» वर्ग:16» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:17» मन्त्र:20


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब स्त्रीपुरुष विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (दस्रा) दुःख दूर करनेहारे (अश्विना) भूगर्भ विद्या को जानते हुए स्त्री-पुरुषो ! (युवम्) तुम दोनों (शचीभिः) कर्मों के साथ (विषक्ताम्) विविध प्रकार के पदार्थों से युक्त (स्तर्य्यम्) सुखों से ढाँपनेवाली नाव वा (अधेनुम्) नहीं दुहानेहारी (गाम्) गौ को (अपिन्वतम्) जलों से सींचो (विमदाय) विशेष मदयुक्त अर्थात् पूर्ण युवावस्थावाले (शयवे) सोते हुए पुरुष के लिये (पुरुमित्रस्य) बहुत मित्रवाले की (योषाम्) युवति कन्या को (जायाम्) पत्नीपन को (न्यूहथुः) निरन्तर प्राप्त कराओ ॥ २० ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में लुप्तोपमालङ्कार है। हे राजपुरुषो ! तुम जैसे सबके मित्र की सुलक्षणा मन लगती, ब्रह्मचारिणी, पण्डिता, अच्छे शीलस्वभाव की, निरन्तर सुख देनेवाली, धर्मशील, कुमारी को भार्य्या करने के लिये स्वीकार कर उसकी रक्षा करते हो, वैसे ही साम, दाम, दण्ड, भेद अर्थात् शान्ति, किसी प्रकार का दबाव, दण्ड देना ओर एक से दूसरे को तोड़-फोड़ उसको बेमन करना आदि राज कामों से भूमि के राज्य को पाकर धर्म से सदैव उसकी रक्षा करो ॥ २० ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ स्त्रीपुरुषविषयमाह ।

अन्वय:

हे दस्राऽश्विना युवं युवां शचीभिर्विषक्तां स्तर्य्यं स्तरीमधेनुं गामपिन्वतं विमदाय शयवे पुरुमित्रस्य योषां जायां न्यूहथुर्नितरां प्राप्नुतम् ॥ २० ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अधेनुम्) अदोहयित्रीम् (दस्रा) (स्तर्य्यम्) सुखैराच्छादिकाम् (विषक्ताम्) विविधैः पदार्थैर्युक्ताम् (अपिन्वतम्) जलादिभिः सिञ्चतम् (शयवे) (शयानाय) (अश्विना) भूगर्भविद्याविदौ स्त्रीपुरुषौ (गाम्) पृथिवीम् (युवम्) युवाम् (शचीभिः) कर्मभिः (विमदाय) विशेषमदयुक्ताय (जायाम्) (नि) (ऊहथुः) प्राप्नुतम् (पुरुमित्रस्य) बहुसुहृदः (योषाम्) युवतिं कन्याम् ॥ २० ॥
भावार्थभाषाः - अत्र लुप्तोपमालङ्कारः। हे राजपुरुषा यूयं यथा सर्वमित्रस्य सुलक्षणां हृद्यां ब्रह्मचारिणीं विदुषीं सुशीलां सततं सुखप्रदां धार्मिकीं कुमारीं भार्यत्वायोदूढ्वा संरक्षथ तथैव सामादिभी राजकर्मभिर्भूमिराज्यं प्राप्य धर्मेण सदा पालयत ॥ २० ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात लुप्तोपमालंकार आहे. हे राजपुरुषांनो! तुम्ही जसे सर्वांशी मैत्री करणारी सुलक्षणा, हृद्य, ब्रह्मचारिणी, पंडिता, उत्तम शीलवती, सुख देणारी, धर्मशील कुमारीचा भार्या म्हणून स्वीकार करता व रक्षण करता तसेच साम, दाम, दंड, भेद इत्यादीद्वारे राज्य कार्य करून भूमीचे राज्य प्राप्त करावे व धर्माने सदैव त्याचे रक्षण करावे. ॥ २० ॥